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तव॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौर्वैश्वा॑नर व्र॒तम॑ग्ने सचन्त। त्वं भा॒सा रोद॑सी॒ आ त॑त॒न्थाज॑स्रेण शो॒चिषा॒ शोशु॑चानः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tava tridhātu pṛthivī uta dyaur vaiśvānara vratam agne sacanta | tvam bhāsā rodasī ā tatanthājasreṇa śociṣā śośucānaḥ ||

पद पाठ

तव॑। त्रि॒ऽधातु॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः। वैश्वा॑नर। व्र॒तम्। अ॒ग्ने॒। स॒च॒न्त॒। त्वम्। भा॒सा। रोद॑सी॒ इति॑। आ। त॒त॒न्थ। अज॑स्रेण। शो॒चिषा॑। शोशु॑चानः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:5» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वैश्वानर) सबके नायक (अग्ने) सबके प्रकाशक ईश्वर ! (तव) आपके (व्रतम्) कर्म और (त्रिधातु) धारण करनेवाले तीन सत्त्वादि गुणोंवाले प्रकृत्यादिरूप अव्यक्त जगत् के कारण को (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) सूर्य (सचन्त) सम्बद्ध करते हैं जो (त्वम्) आप (अजस्रेण) निरन्तर अन्नादि (शोचिषा) अपने प्रकाश से (शोशुचानः) प्रकाशमान हुए (भासा) अपने प्रकाश से (रोदसी) सूर्य्यादि प्रकाशवाले और पृथिव्यादि प्रकाशरहित दो प्रकार के जगत् को (आ, ततन्थ) सब ओर से विस्तृत करते हैं, उन्हीं आपका हम लोग निरन्तर ध्यान करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिसके आधार में पृथिवी सूर्य स्थित होके अपना कार्य करते हैं, कठोपनिषद् में लिखा है कि उस परमात्मा को जानने के लिये सूर्य, चन्द्रमा, बिजुली वा अग्नि आदि कुछ प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु उसी प्रकाशित परमेश्वर के प्रकाश से सब प्रकाशित होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स जगदीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे वैश्वानराग्ने ! तव व्रतं त्रिधातु पृथिवी उत द्यौश्च सचन्त यस्त्वमजस्रेण शोचिषा शोशुचानः सन् स्वभासा रोदसी आततन्थ तमेव त्वं वयं सततं ध्यायेम ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तव) जगदीश्वरस्य (त्रिधातु) त्रयस्सत्त्वादयो गुणा धातवो धारका यस्मिंस्तदव्यक्तं प्रकृत्यात्मकं जगत्कारणम् (पृथिवी) भूमिः (उत) (द्यौः) सूर्यः (वैश्वानर) विश्वस्य नायक (व्रतम्) कर्म (अग्ने) सर्वप्रकाशक (सचन्तः) सम्बध्नन्ति (त्वम्) (भासा) स्वकीयप्रकाशेन (रोदसी) सूर्यादिप्रकाशकं पृथिव्याद्यप्रकाशं द्विविधं जगत् (आततन्थ) सर्वतस्तनोषि (अजस्रेण) निरन्तरेणान्नादिना (शोचिषा) स्वप्रकाशेन (शोशुचानः) प्रकाशमानः ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यस्याधारे पृथिवी भूमिः सूर्यश्च स्थित्वा स्वकार्य्यं कुरुतः न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभातीति कठवल्यामिति वेदितव्यम्। (कठो०२.५.१५) ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! ज्याच्या आधारे पृथ्वी, सूर्य स्थित होऊन आपले कार्य करतात व कठोपनिषदाप्रमाणे त्या परमेश्वराला सूर्य, चंद्र, विद्युत किंवा अग्नी इत्यादी जाणू शकत नाहीत तर त्याच प्रकाशित परमेश्वराच्या प्रकाशाने सर्व प्रकट होतात. ॥ ४ ॥